भारत में लगभग 8 प्रतिशत लोग खुद को आदिवासी मानते हैं। ये जनजातियां अलग‑अलग भाषाएँ, रीति‑रिवाज़ और जीवनशैली रखती हैं, पर सभी का एक ही लक्ष्य है – अपनी जमीन, संस्कृति और पहचान बचाना। ज़ेनीफ़ाई समाचार इस टैग में रोज़ की ताज़ा खबरें लाता है, जिससे आप अपडेटेड रह सकें।
आदिवासियों के लिये सबसे बड़ी राहत ‘फॉरेस्ट राइट एक्ट’ (FRA) है। इस कानून के तहत वन क्षेत्र में रहने वाले जनजातियों को जमीन का कानूनी दस्तावेज़ मिलता है, जिससे वे अपने खेत‑खलिहान या घर सुरक्षित रख सकें। हाल ही में केंद्र सरकार ने FRA को 2024‑25 बजट में अतिरिक्त ₹12 हजार करोड़ आवंटित किए हैं, ताकि नये रजिस्ट्री बन सके और पुराने केस जल्दी हल हों।
एक अन्य महत्वपूर्ण योजना है ‘प्रधानमंत्री जनजाति सशक्तिकरण कार्यक्रम’ (PMKISAN)। इस योजना के तहत हर योग्य किसान को सालाना ₹6,000 की सीधे बैंक ट्रांसफर मिलती है। अगर आप या आपका कोई परिचित इस स्कीम का लाभ नहीं ले रहा तो तुरंत अपने नजदीकी वन विभाग से संपर्क करें – आवेदन प्रक्रिया ऑनलाइन भी उपलब्ध है।
बिल्डिंग वॉटर प्रोजेक्ट, हेल्थ कैंप और शैक्षिक छात्रवृत्ति जैसी स्थानीय पहलें भी तेज़ी से बढ़ रही हैं। कई राज्य सरकारों ने ‘आदिवासी स्वास्थ्य बीमा’ को 2025 में विस्तृत किया है; अब अधिकतम ₹5 लाख तक का इलाज मुफ्त मिलेगा। यह खासकर दूर‑दराज गांवों के लिये बड़ी मदद है।
आदिवासी संस्कृति में संगीत, नाच और कला की गहरी जड़ें हैं। ‘कोइराला’ (गुरु सिंग) से लेकर ‘डाम्पा’ तक के पारम्परिक गीत आज भी उत्सवों में बजते हैं। यदि आप किसी त्यौहार जैसे ‘होली’, ‘दीपावली’ या स्थानीय ‘जैना’ में भाग लेते हैं, तो देखेंगे कि रंग‑बिरंगे कपड़े और हाथ से बनी आभूषण कितनी खूबसूरती से तैयार होते हैं।
खाना भी एक बड़ी पहचान है – बांस के पत्तों पर पकाया गया ‘साबूदाना खिचड़ी’, ‘दाल भात’ या ‘रोटी’ का स्वाद शहर की रेस्टोरेंट में नहीं मिलता। कई आदिवासी समुदाय अब एंट्री‑लेवल रेस्त्रां खोल रहे हैं, जहाँ आप असली गाँव के व्यंजन सीधे बटुएँ में रखकर ले सकते हैं।
आधुनिक तकनीक भी धीरे‑धीरे इनके जीवन में घुस रही है। कुछ क्षेत्रों ने मोबाइल नेटवर्क के साथ डिजिटल शिक्षा पहल शुरू की है; बच्चे अब टैबलेट पर पढ़ाई कर रहे हैं, जबकि उनके बुजुर्गों को खेती‑प्रबंधन ऐप्स से लाभ मिल रहा है। यह बदलाव न केवल आय बढ़ाता है बल्कि युवा वर्ग को गाँव में ही रहने का कारण भी देता है।
आखिरकार, आदिवासी समुदाय के बारे में जानने का सबसे आसान तरीका है उनके साथ सीधा संवाद करना। कई NGOs ने ‘वॉक इन द फ़ॉरेस्ट’ कार्यक्रम शुरू किया है, जहाँ आप एक दिन के लिये गाँव की जिंदगी को जी सकते हैं – खेतों में काम कर सकते हैं, पारम्परिक रसोई सीख सकते हैं और स्थानीय रीति‑रिवाज़ देख सकते हैं। ऐसे अनुभव न सिर्फ जानकारी देते हैं, बल्कि समझ भी बढ़ाते हैं कि ये लोग क्यों अपने अधिकारों के लिए लड़ते रहते हैं।
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राहुल पंडिता ने प्रोफेसर जी एन साईबाबा के साथ अपने अनुभवों और उनसे मिले सबक को साझा किया है। साईबाबा, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर, आदिवासी समुदायों की समस्याओं और माओवादी आंदोलन में उनकी भूमिका के लिए जाने जाते हैं। पंडिता ने साईबाबा के माध्यम से माओवादी नेताओं और उनके परिवारों की कहानियों को समझा और देखा कि कैसे राज्य की नीतियों ने आदिवासियों के जीवन को प्रभावित किया है।